Vat Savitri Vrat Kahani


 क्यों की जाती है बट सवित्री की पूजा

ऐसी मान्यता है कि जेठ अमावस्या के दिन वट वृक्ष की परिक्रमा करने पर ब्रह्मा विष्णु और महेश सुहागिनों को सदा सौभाग्यवती रहने का वरदान देते हैं गांव और शहरों में हर कहीं जहां वटवृक्ष है वहां सुहागिनों का समूह परंपरागत तरीके से विश्वास के साथ पूजा करता दिखाई देगा

अपने सुहाग की लंबी उम्र की कामना के लिए बट सावित्री की पूजा जेठ की अमावस्या पर सुहागी ने करती है कई स्थानों पर वटवृक्ष के तले सुहागिनों का ताता नजर आएगा सुहाग की कुशलता की कामना के साथ सुहागिनों ने परंपरागत तरीके से वट वृक्ष की पूजा कर व्रत रखेंगी उनके द्वारा पांच प्रकार के पकवान और इतने ही प्रकार के फल तथा अनाज भी चढ़ाए जाएंगे उसके बाद वटवृक्ष को धागा लपेट कर पूजा करके पति की लंबी उम्र की कामना की जाएगी इस दिन सुहागिन महिलाएं वट वृक्ष के पेड़ की पूजा अर्चना कर अखंड सुहाग कावर मांगती है पूजा के लिए घर से सज धज के निकली वटवृक्ष के नीचे तथा अवैध रूप में पूजन करके दिखाई देंगे

कई जगहों पर बट की पूजा के लिए महिलाओं घरों से ही गुलगुले पूरी खीर हलवा के साथ सुहाग का सामान लेकर पहुंचेंगे कहीं-कहीं जल पंचामृत भी लेकर जाएंगी जहां वे बट के पेड़ के 3 या 5 फेरे लगाकर कच्चे धागे को पेड़ पर लपेटकर वस्त्र सहित चंदन अक्षत हल्दी रोली फूल माला चूड़ी बिंदी मेहंदी इन्हें पहनकर पति की लंबी उम्र के लिए बट से आशीर्वाद प्राप्त करेंगी।


बट सावित्री पूजा की कथा

प्राचीन समय में मध्यप्रदेश में अशोक पति नामक एक राजा थे उनके यहां पुत्री रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा जब सावित्री बढ़ी हुई तो उन्हें उसके विवाह की चिंता सताने लगी तब सावित्री को वर्क खोजने के लिए कहा गया तो उसने जूमतैल के पुत्र सत्यवान को पति रूप में स्वीकार कर लिया 

इधर जब यह बात नारद जी को मालूम हुई तो वे राजा अश्वपति के पास आकर बोले कि आपकी कमी आने पर खोजने में बड़ी भारी भूल की है सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा अवश्य है परंतु हो और आयु है शादी के 1 वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी नारद जी की बात सुनकर राजा उदास हो गए उन्होंने अपनी पुत्री को समझाया पुत्री ऐसे अल्पायु व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं है इसलिए तुम कोई और वह चुन लो इस पर सावित्री बोली पिताश्री कन्याए अपने पति का वरन एक ही बार करती है अतः आप चाहे जो हो मैं सत्यवान को ही अपने पति के रूप में स्वीकार करूंगी


सावित्री के दिन रहने पर आखिरकार राजा अश्वपति दीवान का सारा सामान और कन्या को लेकर विधि सचिव सहित उस जगह गए जहां भीमसेन अपने पुत्र और अपनी रानी के साथ एक वन में वृक्ष के नीचे कुटिया बनाकर रहते थे उसी वन में विधि विधान पूर्वक सावित्री और सत्यवान का विवाह कर दिया गया 1 में रहते हुए अत्यंत कष्ट पाकर भी सावित्री सास ससुर और पति की सेवा में लगी रही

नारद जी के कथन अनुसार पति के मरण काल का समय पास आया तो धर्म परायण सावित्री ने ससुर से आज्ञा लेकर श्री रात व्रत का अनुष्ठान किया 14 दिन आने पर जब सत्यवान ने लकड़ी फूल और फल लाने के लिए जंगल की ओर प्रस्थान किया तब सावित्री भी सास-ससुर से आज्ञा लेकर दुखी मन से पति के साथ उस भयंकर जंगल में गई नारद जी के वचनों का ध्यान करके मन में भी सर्कस रहने पर भी उसने अपने इस भाई को पति के सामने उजागर नहीं होने दिया पति का मन बहलाने के लिए वह झूठ मोटूस वन में वृक्षों और पशु पक्षियों के बारे में पूछताछ करती रही सुरवीर सत्यवान उस भयंकर वन में विशाल परीक्षा पक्षियों एवं पशुओं के दल को दिखलाता दिखलाता थकी हुई एवं कमल के समान विशाल नेत्रों वाली राजकुमारी को आश्वासन देता रहा


जब सत्यवान लकड़ी काट रहे थे तो अचानक उनके सिर में बहुत तेज पीड़ा उत्पन्न हुई तब वह पीड़ा से व्याकुल होकर अपनी पत्नी के पास आकर बोले सावित्री इस परिश्रम से मेरे सिर में बहुत पीड़ा हो रही है ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मैं अंधकार में प्रवेश हो रहा हूं इस समय मैं तुम्हारी गोद में सिर रखकर सोना चाहता हूं सावित्री से ऐसा कह कर सत्यवान उसकी गोद में सिर रखकर सो गए तब सत्यवान की मृत्यु हो गई राजपूत सावित्री ने उस स्थान पर स्वयं धर्मराज को आए देखा जो नीले कमल के समान श्याम वर्ण से सुशोभित और पितांबर धारण किए हुए थे


उनके पीछे मृत्यु सहित कालवी था धर्मराज ने उस स्थान पर पहुंच कर उस समय सत्यवान के शरीर से अंगूठे के परिमाण वाले पुरुष को पाशा में बांधकर अपने अधीन किया और उसे खींचकर शीघ्रता पूर्वक दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया पति को प्राण रहित देखकर सावित्री जाते हुए धर्मराज के पीछे पीछे चली और कांपते हुए हिले से अपने दोनों हाथ जोड़कर बोली माता की भक्ति से इस लोक पिता की भक्ति से मध्यम लोग और गुरु की भक्ति से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है जो इन तीनों का आदर करता है उसे मानो सभी धर्मों का पालन कर लिया तथा जिसने इस तीनों का आदर नहीं किया उसके किए हुए समस्त पुण्य कार्य में निष्फल हो जाते हैं

हेमराज ने कहा सावित्री तुम हमसे जिस कामना को पूर्ण कराने के लिए आ रही हो उस कामना को छोड़ दो और शीघ्र लौट जाओ सचमुच संसार में माता-पिता और गुरु की सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है तुम्हारा पति गुरुजनों की पूजा में निष्ठा रखने वाला है पर तुम्हारा इस प्रकार से मेरे पीछे आना मेरे काम में बाधा डाल रहा है अतः तुम लौट जाओ सावित्री बोली स्त्रियों का पति ही देवता है पति ने उस को शरण देने वाला है इसलिए साध्वी स्त्रियों को अपने पति का अनुगमन करना चाहिए पिता भाई तथा पुत्र परिमित संपति देने वाले हैं किंतु पति अपरिमित संपत्ति का दाता है भला ऐसे पति को कोई पूजा नहीं करेगी आप मेरे पति को जहां ले जा रहे हैं वहीं मुझे भी ले चलिए अन्यथा मैं अपने प्राण त्याग दूंगी यमराज ने कहा सत्यवान के प्राण को छोड़कर कोई भी वरदान मांग लो देर मत करो सावित्री बोली धर्मराज हो गए हैं जिनकी आंखों की ज्योति चली गई है ऐसे में महात्मा ससुर को राज्य तथा नेत्र ज्योति प्रदान कीजिए यमराज ने कहा तुम्हारी यह सब अभिलाषा पूर्ण होगी फिर वह बोले कि अब तुम वापस लौट जा पर सावित्री ना मानी उनके पीछे पीछे आती रही बहुत दूर पहुंच जाने के बाद यमराज फिर बोले तुम बहुत दूर तक चली आई हो तुम्हारा मेरे पीछे चलने से मेरे काम में विघ्न पड़ेगा और तुम्हें भी थकावट होगी तब तुम लौट जाओ सावित्री ने कहा देव श्रेष्ठ पुरुषों के साथ समागम होने पर कैसा परिश्रम और कैसा दुख वीर अग्नि अर्थशास्त्र से लोगों को उतना भय नहीं होता जितना दुष्ट से होता है


जिस प्रकार सत्पुरुष अपने प्राणों का त्याग करके भी परोपकार करते हैं उसी प्रकार दुर्जन भी अपने प्राणों का परित्याग कर करके दूसरों को कष्ट देने में तत्पर रहते हैं यह जगत पुरुषों द्वारा धारण किया जाता है तथा आप उन पुरुषों को आगे हैं इसलिए देव आपके पीछे चलते हुए मुझे कुछ भी क्लेश नहीं है यमराज बोले विशालाक्षी तुम्हारे धर्म युक्त वचनों से मैं प्रसन्न हूं अतः सत्यवान के प्राणों के अतिरिक्त दूसरा वर मांग लो देर ना करो सावित्री ने कहा प्रभु मैं सब भाइयों की अभिलाषा मेरे पिता पुत्र हीन है अतः पुत्र से प्रसन्न हो

यह सुनकर यमराज ने सावित्री से कहा सावित्री तुम जैसी आई हो वैसे ही लौट जाओ तथा अपने पति के अंतिम क्रिया की व्यवस्था करो अब दूसरे लोग में चला गया है इसके पीछे नहीं चल सकती क्योंकि तुम पतिव्रता हो इसलिए दो घड़ी तक और मेरे साथ चल सकती हो सत्यवान ने गुरुजनों की सेवा करके महान अर्जित किया है अतः मैं स्वयं इसे ले जा रहा हूं सुंधा माता पिता और गुरु की सेवा में सदैव तत्पर रहना चाहिए और उनका कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए मनुष्य के जन्म के समय माता और पिता जो कष्ट सहन करते हैं उसका बदला सैकड़ों वर्षो में भी नहीं छुपाया जा सकता अतः मनुष्य को माता पित गुरु का सदा ही प्रिय कार्य करना चाहिए क्योंकि इन तीनों के संतुष्ट होने पर सभी तपस्या संपन्न हो जाती है


यमराज ने कहा पुत्री तुम्हारे द्वारा कही हुई सभी बातें पूर्ण होंगी तुम्हारा काम पूरा हो गया अब तुम लौट जाओ तुम्हारा इस प्रकार से मेरे पीछे आने से मेरे कार्य में विघ्न पड़ता है और तुम्हें भी कष्ट हो रहा है इसलिए मैं तुमसे ऐसा कह रहा हूं सावित्री ने कहा देव प्लेस धर्म की उपलब्धि के लिए कार्य में कैसी ज्ञानी और कैसा कष्ट देव ज्ञानी व्यक्ति को सर्वदा धर्म का पालन करना चाहिए क्योंकि उसका लाभ सभी लोगों से विशेष महत्वपूर्ण है

इंसान जहां कहीं भी जाए पीछे अकेले उधर नहीं जाता है मित्र एवं भाई बंधु कोई साथ नहीं देता इस संसार में और स्वर्ग में मनुष्य जितने भी प्रकार के उत्तम वस्तुओं और बड़ों को प्राप्त करता है वह उसके पुण्य कर्मों का ही फल होता है उसकी प्राप्ति के उपाय है योगदान सत्य तीर्थों की यात्रा सेवा सत्संग गुरु की सेवा दी ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए इसलिए उसको धर्म का पालन करना चाहिए यमराज सावित्री से बहुत प्रसन्न हुए और बोले पुत्री सत्यवान के प्राणों के सिवा तुम कुछ और वरदान मांग लो और जल्दी करो तब सावित्री ने कहा हे यमराज आप ही जगत के स्वामी है क्योंकि आप कर्मों के अनुरूप प्रभाव का नियम करते हैं इसलिए यमराज नाम से पुकारे जाते हैं प्रभु आप ध्यान पूर्वक सारी प्रजा को आनंदित करते हैं इसलिए लोग आपको धर्मराज के नाम से पुकारते हैं


यमराज बोले तुम्हारी स्थिति तथा भक्ति से संतुष्ट होकर मैंने तुम्हारे पति सत्यवान को मुक्त कर दिया है अब तुम सफल मनोरथ होकर लौट जाओ यह सत्यवान तुम्हारे साथ 500 वर्षों तक राज्य सुख वर्कर अंतकाल में स्वर्गलोक जाएगा सत्यवान तुम्हारे गर्व से सौ पुत्रों को भी उत्पन्न करेगा वह सब के सब देवताओं के समान तेजस्वी और छत्रिय राजा होंगे इतना कह कर यमराज सत्यवान को छोड़कर काल तथा मृत्यु के साथ अदृश्य हो गए इसके बाद पति व्रता सावित्री वहां से जिससे गई थी उसी मार्ग से लौटकर स्थान पर आए जहां सत्यवान का मृत शरीर पड़ा हुआ था तब सावित्री ने पति के नजदीक जाकर उसके सिर को अपनी गोद में रखकर पहले की तरह बैठ गए उस समय सूर्य अस्त होने वाले थे थोड़ी देर में सत्यवान ने अपनी आंखें खोली और उठ कर बैठ गया सत्यवान लिए जा रहा था यहां से मेरा पूरा दिन बीत गया तुमने भी पूरे दिन कुछ खाया नहीं और वहां आश्रम में मेरे माता-पिता को भी मेरे कारण दुख भोगना पड़ा सावित्री मैं उन्हें देखना चाहता हूं चलो जल्दी चलो जल्दी चलो सावित्री बोली स्वामी सूर्य तो अस्त हो गए चलिए हम आश्रम को लौट चलें मैं वही सारी घटना विस्तार से आपको बताऊंगी ऐसा कह कर सावित्री पति के साथ आश्रम पर पहुंची उसी समय पत्नी सहित जून 10 को नेत्र ज्योति प्राप्त हो गई वह दोनों अपने पुत्र और पुत्रवधू को वापस आया देखकर बहुत प्रसन्न हुए सावित्री और सत्यवान ने तत्कालीन छत्रिय राजा जैन को प्रणाम किया पिता ने राजकुमार सत्यवान को गले लगाया उस समय आनंदित सावित्री ने जैसी घटना घटित हुई थी उसका वर्णन किया और उसी रात को अपने व्रत को भी समाप्त किया सेना सहित ढोल नगाड़ों के साथ राजा को पूरा करने के लिए निमंत्रण देने आई और यह सूचना दी कि राजा नेत्रहीन होने के कारण जिस राजा ने राज्य को छीन लिया था वह राजा मंत्रियों द्वारा मार डाला गया है सेना के साथ कहां गए और धर्मराज की कृपा से अपने राज्य को प्राप्त किया सावित्री ने भी 100 भाइयों को प्राप्त किया इस प्रकार पति व्रता सावित्री ने अपने पित्र पक्ष और विपक्ष दोनों का उद्धार किया और नीतू के पास में बंधे हुए अपने पति को मुक्त किया इसलिए मनुष्य को सदा स्त्रियों की देवताओं के समान पूजा करनी चाहिए क्योंकि उनकी कृपा से यह तीनों लोग हैं जो मनुष्य सत्यवान सावित्री की कथा को में सफलता प्राप्त करता है और का भागी नहीं होता

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